फ़ुलवा

(Fulwa)

फ़ुलवा 2009-08-26 Comments

उसका पति धीरू दो बरस पहले शहर कमाने चला गया। गौने के चार माह बाद ही चार-छः जनों के साथ वह चला गया।

तब से अकेली फ़ुलवा घर गृहस्थी संभाल रही है। घर का दरवाजा बांस की फट्टी जोड़कर बना है। उसी में सैकड़ों रूपए निकल गए हैं।

अब गौरी ही उसकी आजीविका का साधन हैं दिन भर घर का काम और गौरी की देखभाल ! यही उसका जीवन है। जब धीरू था तब मेहनत-मजूरी से पैसे लाता था। कतर-ब्यौंत करके फ़ुलवा गाँव के चौबे जी की बछिया खरीद लाई थी। चांद सी गौरी बछिया का नाम उसने गौरी ही रखा। बड़ी होकर यह उसका सहारा बनेगी यही सोचकर फ़ुलवा ने गौरी को औलाद की तरह पाला। गौरी भी उसकी एक पुकार पर खाना-पीना छोड़कर दौड़ी चली आती थी। फ़ुलवा के तो प्राण गौरी में ही बसते थे।

धीरू को शहर गए दो बरस बीत गए। कहकर गया था कि ‘छठ परब’ पर आ जाएगा लेकिन नहीं आया। इस बार वह आस लगाकर बैठी हैं अभी तो एक महीना बाकी है ‘परब’ आने में।

कभी-कभी फोन से बात होती हैं लेकिन फोन से बात करके मन तो भरता है परन्तु देह की माँग पूरी नहीं होती।

गौरी की देह जो सुख मांग रही है फ़ुलवा भी तो वही चाहती है। गौरी तो किसी के साथ जा सकती है लेकिन फ़ुलवा तो समाज के बनाए बंधन को तोड़ नहीं सकती। बदन का पोर-पोर दुखने लगता है, मन करता है कोई उसे अपने अपने सीने में भींच ले ताकि उसकी एक-एक हड्डी चटक जाए लेकिन मन की इच्छा मन में ही रह जाती है। बैरी समाज नहीं उसका पति धीरू है जो चार महीने का साथ देकर परदेस चला गया। दो बरस से बैठा है शहर में और यहाँ फ़ुलवा की देह तड़प रही है।

उस दिन की घटना उसकी आँखों के आगे आ गई जब वह गौरी के लिए घास छीलने खेत में गई थी। गाँव का छैल छवीला रजुआ उसे देख कर कनखी मार बैठा था। वह अपनी भैंस चरा रहा था। फ़ुलवा के रूप से बौरा कर विरहा की तान छेड़ बैठा था। विरहा की तान ने फ़ुलवा का दुःख दूना कर दिया था। रजुआ के घुंघराले बालों के बीच चमकता उसका सांवला मुखड़ा और उस पर मनमोहिनी हंसी बहुत जानलेवा थी।

फ़ुलवा की ओर मुँह कर कानों पर हाथ डालकर जब उसने गाना शुरू किया- आहे धनि, मोह ले हम्मर परान

तब फ़ुलवा का गोरा चेहरा लाज से लाल हो गया था। उसने टेढ़ी नजरों से रजुआ की ओर देखा था जो ‘खी खी’ करके हँसने लगा। रजुआ की मनमोहिनी हँसी फ़ुलवा के मन को छू गई थी। उसके साँवले मुखड़े से झाँकती सफेद दंत-पंक्ति पर वह मुग्ध हो गई थी। फ़ुलवा उसे देखकर धीरू को याद करने लगी। घास की टोकरी उठवाने के क्रम में रजुआ ने धीरे से उसकी उंगलियाँ दबा कर कहा- भौजी, तुम्हारा चेहरा आसमान के चंदा से भी ज्यादा सुन्दर है।

“धत् पगला !” कहकर फ़ुलवा खुरपी टोकरी में रखने लगी। खुरपी रखते समय उसका आँचल हट गया था, उसने देखा रजुआ प्यासी आँखों से उसे निहार रहा है। फ़ुलवा लजा गई और खेत की मेड़ तरफ बढ़ गई। अभी भी रजुआ की प्यासी आँखें उसकी देह में गड़ रही थीं।

गौरी के उठने से फ़ुलवा के भीतर भी एक अजीब बचैनी घर करने लगी थी। उसका मन भी पुरूष संग के लिए अकुलाने लगा लेकिन उसका धीरू तो दूर है। वह धीरू को याद कर रजुआ की याद को दूर करने का प्रयास करने लगी।

रात की काली चादर ने पूरे गाँव को अपने भीतर समा लिया था। फ़ुलवा तबेले से घर के भीतर आ गई लेकिन गौरी का रँभाना-डकारना जारी रहा, पुचकार-दुलार से कहीं देह का भरम दूर होता है !

तबेले में गौरी रम्भा रही थी झोपड़ी में फ़ुलवा कसमसा रही थी। उसकी आँखों के सामने धीरू के बदले रजुआ का सांवला सलोना मुखड़ा तैर रहा था। रजुआ की आँखों की तृष्णा और उंगलियों का स्पर्श उसके भीतर पुलक भर रहा था, उसका पूरा बदन दुख रहा था किन्तु बैरिन रात बीच में खड़ी थी अन्यथा वह रजुआ से मिलने चली जाती यदि दिन होता तो। किसी तरह रात गुजरे तो ही वह रजुआ को देख सकेगी, अपने मन की लालसा पूरी कर सकेगी। यही सोचते सोचते उसकी आँख लग गई।

दूसरे दिन गौरी को लेकर वह नटों की बस्ती में गई। गौरी को उनके पास छोड़कर रजुआ के पास दौड़ी गई- देख रजुआ ! गौरी को सुन्दर नट के पास छोड़ आई हूँ, वह ‘उठ’ गई है। जरा जाकर ‘हार-सम्हार’ कर दे। मैं ठहरी जनी जात। ये सब काम तो मेरे से होने से रहा।

“भौजी कहो तो तुम्हारा भी ‘हार-सम्हार’ कर दें? मैं तो कब से तैयार बैठा हूँ। तनिक इशारा तो करा, देखो मैं कैसे सम्हारता हूँ तुमको !” होंठों पर शरारती हँसी दबा कर रजुआ बोला।

“दुर ! पगला-बौरा गया है क्या? अभी मंझली काकी से कहती हूँ कि तुम्हारा ब्याह जल्दी कर दें !” आँखों में रस भर कर फ़ुलवा बोली।

“हाँ कहो न, मैं भी तैयार हूँ तुमसे चुमौना करने को।”

“गाँव वाले निकाल देंगे गाँव से।”

“तुम साथ दोगी तो जंगल में भी मंगल होगा।”

“अच्छा, अभी तो गौरी को ही ‘सम्हार’ ! फिर देखा जायेगा।”

फ़ुलवा के आदेश पर रजुआ सुन्दर नट के थान पर चला गया। वहाँ गौरी को देखकर फ़ुलवा भौजी कर चेहरा याद आता रहा। मूक गौरी भी देहधर्म को भूल नहीं पाई तो फ़ुलवा भौजी कैसे काट रही है दिन? धीरू भी कमाल है। नई ब्याहता पत्नी को छोड़कर शहर चला गया। वाह रे रूपैया का खेल। अरे यहाँ रहकर कम ही कमाता लेकिन घर परिवार को तो देखता। पैसा का इतना लालच था तो बियाह ही नहीं करता !

मन में तरह-तरह के विचारों से जूझता रजुआ फ़ुलवा के प्रति गहरा आकर्षण महसूस करने लगा, उसे भौजी के प्रति सहानुभूति होने लगी। फ़ुलवा भौजी का गोरा रंग, आम की फाँक सी आँखें और पान की तरह पतले होंठ उसके मन को चुम्बक की तरह खींच रहे थे। गौरी की पुकार पर सुन्दर नट का साँड दौड़ा चला गया। रजुआ का मन भी उसी तरह पवन वेग से फ़ुलवा के पास दौड़ने लगा।

गौरी को लेकर जब रजुआ लौटा तो साँझ होने लगी थी। एक धुंधला उजास छा रहा था। धूसर आसमान पर ‘शुकवा’ अकेला उग अया था। उसकी मद्धिम रोशनी एक उदासी प्रकट कर रही थी। ‘शुकवा’ तारा जब उदास होता है तब अरून्धती आकर उसकी उदासी दूर करती है, ऐसा माई कहा करती थी। जब वह छोटा था तब माई अँगना में चारपाई पर लेट कर ‘शुक-शुकिन’ (अरून्धती) की कहानी सुनाती थीं। रजुआ बड़े गौर से आकाश में उगते तारों को देखा करता था। माई से ही उसने जाना था कि जब शुक-शुकिन मिलते हैं तब लगन का समय आता है ब्याह का मुहुर्त निकलता है।

आज जब उसने आसमान पर निगाह डाली तब उसे अकेला ‘शुकवा’ (शुक्रतारा) ही नजर आया। उसकी उदासी रोशनी में उसे फ़ुलवा भौजी की छाया दीख पड़ी। उसने निश्चय किया कि वह फ़ुलवा भौजी को उदास नहीं रहने देगा। जब वह फ़ुलवा के घर पर आया तो रात का एक पहर गुजर चुका था। कृष्णपक्ष की अँधेरी रात तारों की जगमगाहट से झिलमिला रही थी।

रजुआ गौरी को हांककर तबेले में ले गया। वहाँ फ़ुलवा दिखाई नहीं पड़ी। उसे खूँटे से बांधकर वह झोपड़ी का दरवाजा खोलकर अन्दर आया। बँसाट पर सोई फ़ुलवा का आँचल जमीन पर गिरा हुआ था। गले की नीली नसें सांस के आने जाने से हिल रही थीं और उसका गोरा बदन चाँदी की कटोरी सा दिपदिपा रहा था।

रजुआ का कलेजा हिलोरें लेने लगा। नसों में रक्त उबलने लगा, भीतर का हिंस्र पशु सामने शिकार देखकर मचलने लगा। उसने धीरे से बंसखट की ओर पैर बढ़ाया, तभी फ़ुलवा की नींद खुल गई।

रजुआ को देखकर वह उठ बैठी, आँचल सम्हाल कर अपना पूरा बदन ढक लिया। रजुआ का लाल-भभूका चेहरा देखकर वह घबरा गई, पूछा- गौरी ठीक है न? तुम इस तरह घबराये हुए क्यों हो?

रजुआ ने भरईये स्वर में कहा- हाँ भौजी, गौरी ठीक है, उसे तबेले में बाँध आया हूँ। क्या तुम दो छन बैठने को नहीं कहोगी दिन भर तो हलकान हुआ ही हूँ।

फ़ुलवा उठकर खड़ी हो गई और बंसखट उसकी ओर बढ़ाकर हँसती हुई बोली- बैठो और चाय बनाती हूँ, पीकर जाना।

“हाँ भौजी ! तुम जो दोगी अपने मन से ले लूँगा ख़ुशी से।”

“बबुआ, लगता है बहुत थक गये हो। खुशकी से चेहरा उतर गया है।”

फ़ुलवा आग जलाकर चाय बनाने लगी। रजुआ उसे एकटक देखता रहा। आग की लपटों फ़ुलवा का गोरा मुखड़ा दमक रहा था और रजुआ के सीने में तूफान मचल रहा था। रात का निर्जन एकान्त अकेली फ़ुलवा चारों ओर का सन्नाटा।

उसके मन में फ़ुलवा को पाने की इच्छा बलवती हो रही थी।

बेचैनी दूर करने के लिए जेब से बीड़ी निकाल कर कश खींचकर उसने धुंआ फ़ुलवा के मुँह पर डाला।

कृत्रिम गुस्से से फ़ुलवा ने उसकी ओर देखा और कहा- क्या बबुआ, जलने जलाने के लिए धुंआ काफी नहीं होता।

“भौजी, मैं तो जल ही रहा हूँ, तुम्हीं मेरे तन मन की आग बुझा सकती हो।”

फ़ुलवा ने चाय का गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया। एक घूंट पीकर गिलास नीचे रखकर रजुआ उसकी ओर बढ़ आया और उसका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर ले आया। रजुआ का दिल तेजी से धड़क रहा था। तभी उसने फ़ुलवा को अपनी बाहों में भींच लिया। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

रजुआ की तेज सांसें उसके नथुनों में घुसने लगी। बिना किसी प्रतिरोध के वह उसके सीने में समाने लगी, उसका पोर पोर लहकने लगा। वह सिहरती गई, सिमटती गई और उसकी हथेली पर रात ने चाँद रख दिया।

झोपड़ी की मिट्टी पुती दीवारें गुनगनाने लगी और वह भूल गई कि वह किसी दूसरे की ब्याहता है ! भूल गई धीरू को जिसकी प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतीक्षा किया करती थी।

देहधर्म सारी वर्जनाओं पर विजय हुआ। उसक देह चिनगारी की तरह धधक उठी।

पत्तों की तरह झरते दिनों को मुट्ठी भर आकाश ने थाम लिया।

रजुआ के जाने के बाद धीरू की याद उसे बेतरह सताने लगी। न जाने वह शहर में कैसे रहता होगा। आज कितना बड़ा पाप कर बैठी !

हे राम, मैं अब कैसे जाऊँगी धीरू के सामने ?

अन्तर्द्वन्द्व से घिरी फ़ुलवा फूट-फूट कर रो पड़ी। देह की तृप्ति के लिए वह सीता-सावित्री का पतिब्रत भूल गई, ग्लानि से भर कर वह अहिल्या की तरह पत्थर बन गई।

दूसरे दिन वह जब खेत में घास छीलने गई तब रजुआ उसे दिखाई दिया। उसके उदास चेहरे को देखकर रजुआ ने पूछा- क्या बात है भौजी, उदास क्यों हो?

“न जाने कौन से साइत में तुमसे मुलाकात हुई कि इतना बड़ा पाप हो गया !” रोती हुई फ़ुलवा बोली।

रजुआ ने उसका आँसुओं से भरा चेहरा अपनी हथेली में भर लिया। कचनार फूल की तरह दिपदिपाता चेहरा मुरझा गया था लेकिन रजुआ के स्पर्श से वह लाल हो उठा।

“देवरजी, मैं अब कहीं की नहीं रही !” रूँधे गले से फ़ुलवा बोली।

“क्यों भौजी? हम तो जिन्दगी भर तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं। आजमा कर देख लेना।”

दो महीने बीत गए। फ़ुलवा को पैर भारी होने का अंदेशा लगा, धीरू आया नहीं। गाँव, समाज का भय, लोक लज्जा का ख्याल उसे बेचैन करने लगा। अकेली औरत गाँव वालों को तो निन्दा-रस का सुख मिलेगा लेकिन उसकी कितनी फजीहत होगी यह सोचकर वह व्याकुल हो उठी।

उसकी गौरी भी गाभिन हो गई है, मन में इससे उछाह है लेकिन अपनी दशा से वह शर्मिन्दा है।

धीरू से उसे विरक्ति होने लगी। नई ब्याहता को छोड़कर दो बरसों से शहर वासी हो गया है। इधर तो फोन भी नहीं आ रहा है उसका। आने की बात तो दूर रही ! कैसे जी रही है वह यह भी नहीं पूछता है।

और यह रजुआ छोटी-छोटी परेशानियों को चुटकी में हल कर देता है। लेकिन अपराध की काली परछाई उसके भीतर गर्भ में पलने लगे है, यह बात असह्य हो गई है।

दिन पथिक की तरह बीतने लगे। फ़ुलवा का पेट बढ़ने लगा, मूल चन्द्रमा की तरह और उसकी चिन्ताएँ भी। लोगों के बीच वह क्या मुँह दिखायेगी।

रजुआ उसकी टोह लेने आता तो वह उससे मुँह फेर लेती थी। रजुआ की समझ में कुछ नहीं आता था, वह फ़ुलवा की बेरूखी से हैरान था। फ़ुलवा क्यों दूर भाग रही है वह समझ नहीं पा रहा था।

उस दिन शरद पूनो की रात थी। चारों ओर चाँदनी बिखरी थी। फ़ुलवा दूध बेच कर लाए पैसों को सम्भाल कर पेटी में रख रही थी तभी बांस के दरवाजे को ठेलता हुआ रजुआ उसके पास आ पहुँचा। उसका मुरझाया चेहरा देखकर फ़ुलवा को दया आई, वह आज उसकी अवहेलना नहीं कर पाई। रजुआ का सांवला चेहरा दुबला लग रहा था, निष्प्रभ आँखों में पहले जैसा उल्लास नहीं था। वह फ़ुलवा के आगे हाथ जोड़ता हुआ बोला- भौजी, मेरी एक बात सुन लो, फिर मुझे घर से बाहर करना। तुम्हें मुझसे क्यों इतनी घिन आ रही है कि मुझसे बात भी नहीं करती हो? बतलाओगी तब तो मैं कुछ समझूंगा।

फ़ुलवा ने अपने पेट की ओर इशारा करके कहा- देख रहे हो मुझे। मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ। धीरू लौटा नहीं। लोग क्या कहेंगे यही सोचकर मैं परेशान हूँ।

रजुआ के चेहरे पर खुशी की लाली लौट गई। वह फ़ुलवा को दोनों बाहों में भर कर बोला- भौजी, धीरू आये न आये, मैं कल ही तुमसे चुमौना करूँगा। हमारे बच्चे को कोई कुछ नहीं कह सकेगा। उसका बाप मैं हूँ। तुमने मुझे पहचाना नहीं भौजी। तुम मेरी फ़ुलवा हो और हमारा बच्चा सूरज होगा !

रजुआ आश्वस्ति देता हुआ बोला तो फ़ुलवा के चेहरे की कालिमा दूर हो गई और उसके चेहरे पर दुपहरिया के फूल खिल उठे, उसका वर्तमान, भविष्य सभी सुरक्षित हो उठे !

धीरू आए न आए उसके सिर पर रजुआ का बलिष्ठ हाथ जो है।

What did you think of this story??

Comments

Scroll To Top