शीशे का ताजमहल-1

(Shishe Ka Tajmahal- Part 1)

शबनम का बैठकखाना खूबसूरती से सजा हुआ था, कमरे की दीवारें हल्के गुलाबी रंग से पुती हुई थी, बाईं दीवार पर एक अस्त व्यस्त ग्रामीण बाला की आदमकद तस्वीर लगी हुई थी। ठीक उसी के नीचे बड़े से दीवान पर खूबसूरत सा बेड कवर बिछा हुआ था, फर्श पर महंगा गद्देदार कालीन, सुन्दर सोफासेट… कुल मिलकर बैठकखाना एक परिष्कृत अभिरुचि का एक जीता जागता नमूना था।

कमरे की जो चीज मुझे सबसे अधिक आकर्षित कर रही थी, वो थी सोफासेट के बाजू में एक काले स्टूल पर रखी हुई ताजमहल की प्रतिकृति!

लगभग दो फीट ऊँची वह प्रतिकृति चमकदार शीशे की बनी हुई थी जो कमरे की मद्धम रोशनी में हीरे की तरह जगमगा रही थी। मेरा ध्यान बार बार उस ताजमहल की ओर चला जाता और मैं भाव विभोर होकर उस कला के अद्भुत नमूने को निहारता रहता।

मन होता उसे छू लूँ… पर लगता कि मेरे छू लेने भर से कहीं वह टूट न जाये।

आप सोच रहे होंगे कि यह शबनम भला कौन है और मैं उसके बैठक खाने में कैसे पहुँच गया। दरअसल शबनम मेरे दीदी की अन्तरंग सहेली है जो मेरे दीदी के घर से थोड़ी दूर पर रहती है। मेरे दीदी की शादी अहमदाबाद के एक खाते-पीते परिवार में हुई है। जीजा जी का आयात-निर्यात का अपना कारोबार है जिसमें वो अक्सर व्यस्त रहते हैं। दीदी की उम्र 35 साल है और मेरी 28 साल।

दीदी की ननद की शादी नवम्बर माह में तय हुई थी। जीजाजी की व्यस्तता के कारण दीदी ने मुझे शादी की तैयारियों के लिए एक माह पहले ही बुलवा लिया था। अहमदाबाद में दीदी की आलिशान कोठी थी। दीदी ने मेरे रहने के लिए ऊपर की मंजिल में एक अलग से कमरा मुझे दे रखा था। शादी की खरीददारी के लिए दीदी अपनी अन्तरंग सहेली शबनम और मुझे साथ लेकर जाया करती थी।

शबनम की उम्र 32 होगी, वह बहुत गोरी तो नहीं थी पर रंग साफ़ था। ऊंचाई लगभग 5 फीट होगी। उसके घने लम्बे घुंघराले बाल कूल्हे तक आते थे जिन्हें वो अक्सर जूड़े के रूप में बांधकर रखती थी। उसके भरे हुए गदराये जिस्म पर उभरे हुए विशाल वक्ष उसके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करते थे। वो गंभीर थी… शालीन थी.. कुल मिलाकर मैं उसके व्यक्तित्व के मोहपाश में बुरी तरह जकड़ चुका था।

शादी की खरीददारी के लिए जब मैं पहली बार शबनम के घर गया तो मैं उसके ड्राइंग रूम की सजावट देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था। विशेषकर ड्राइंग रूम में रखे उस बेहद खूबसूरत शीशे के ताजमहल के प्रति। मुझे उसके व्यक्तिगत अभिरुचि का आभास भी हो चुका था।

हम लगभग प्रतिदिन शाम को चार बजे खरीददारी के लिए निकलते और रात करीब 9 बजे वापस लौट आते थे। इस बीच हम किसी काफी हाउस में काफी आदि पी लिया करते थे। मुझे शबनम का साथ अच्छा लगने लगा था। वो ज्यादा बात नहीं करती थी… पर मैं उसकी बातें बड़े ध्यान से सुनता था… उसकी हर ज़रूरत का ख्याल रखता था। मैं ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ रहने की कोशिश करने लगा था।

उसमें निश्छलता थी पर मेरे अन्दर कपटपूर्ण भाव आने लगे थे। इसलिए कभी-कभार मौका देखकर जानबूझकर अनजान बनते हुए उसके शरीर का स्पर्श करने से अपने आप को रोक नहीं पाता था। ऐसा करने पर जो आनन्द की अनुभूति मुझे होती थी वह अवर्णननीय है। अपने मन की भावनाओं को छिपाकर मैंने शबनम के बारे में जानना चाहा तो दीदी ने मुझे बताया कि वह तलाकशुदा है। लगभग चार साल पहले उसने प्रेम विवाह किया था, उसके पति एक बड़े कंपनी में ऊँचे पद पर पदस्थ हैं। उसके पति ने लगभग दो साल पहले अपने घरवालों के दबाव में अपने किसी दूर के रिश्तेदार की बेटी से दूसरा विवाह कर लिया, जिससे शबनम के आत्मसम्मान को इतनी गहरी ठेस लगी कि उसने अपने शौहर से सम्बन्ध तोड़ लिया। शबनम के पति ने उस सम्बन्ध को बनाये रखने की भरपूर कोशिश की थी पर शबनम की जिद के आगे उसकी एक न चली।

मैंने मन ही मन शबनम के इस कृत्य का समर्थन किया।

दीदी ने मुझे यह भी बताया कि शबनम के कमरे में जो शीशे का ताजमहल रखा हुआ है उसे उसके शौहर ने ही शादी की पहली वर्षगांठ पर उसे दिया था। शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी, सिर्फ दस दिन बचे थे, दीदी को घर की व्यवस्था देखनी थी। उसने बाकी की खरीददारी का काम हम दोनों पर छोड़ दिया। मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मेरे मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे।

आज शाम चार बजे मुझे शबनम के साथ जाना था। मैं तीन बजे से ही तैयार होना शुरू कर दिया। मैंने सफ़ेद जींस के साथ नीले रंग का टीशर्ट पहन रखी थी। इस ड्रेस में मैं खूब फबता था। मैंने अच्छा सा सेंट लगाया और आईने के सामने अलग-अलग कोण से स्वयं को निहारता रहा। बार-बार घड़ी की ओर देखकर चार बजने की प्रतीक्षा करने लगा। जैसे-तैसे पौने चार बजे मैं घर से निकल पड़ा और चार बजने से पहले ही शबनम के घर पहुँच गया। थोड़ी देर बैठने के बाद हम निकल पड़े। खरीददारी ज्यादा बची नहीं थी इसलिए काम जल्दी निपट गया। फिर शबनम के कहने पर हम शहर के विभिन्न पर्यटन स्थलों की ओर निकल पड़े। वह मुझे एक कुशल गाइड की तरह हर एक स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व समझाती रही। जहाँ कही भी भीड़ होती मैं जानबूझकर उससे चिपक जाता।

रात के लगभग साढ़े आठ बजे थे, हम वापस लौट रहे थे। उसने मुझे अपने घर सेवइयाँ खाने के लिए रुकने को कहा तो मैं फूला नहीं समाया। मुझे मेरा लक्ष्य करीब दिखने लगा। मुझे बैठक खाने में बैठा कर वो अन्दर चली गई। मैं मंत्रमुग्ध सा शीशे के उस खूबसूरत ताजमहल की ओर निहारने लगा।

थोड़ी देर में वो आई। उसने सफ़ेद सलवार के साथ आसमानी रंग का ढीला-ढाला कुरता पहन रखा था। शायद उसने ब्रा नहीं पहनी थी। उसके भारी भरकम स्तन उसके चलने से ऊपर नीचे लपक रहे थे। वो सेवई का कटोरा मेज पर रखने के लिए झुकी तो उसके उफनते हुए स्तनों का ऊपरी आधा हिस्सा ठीक मेरे आँखों के सामने था।

मैं अपना आपा खो बैठा और अचानक खड़े होकर उसे अपनी बाँहों में भरकर उसके होंठों पर चुम्बन जड़ना चाहा… मेरे होंठ उसके होंठो को छू पाते, इससे पहले उसने अपने दाहिने हाथ के पंजे से मेरे चेहरे को और बाएं हाथ से मेरे सीने को पूरी ताकत से परे धकेल दिया।

मैं डगमगाया और लड़खड़ा कर सोफे के बगल में रखे उस शीशे के ताजमहल से जा टकराया। ताजमहल गिरकर चकनाचूर हो चुका था बिल्कुल मेरे सपनों और अरमानों की तरह !

उसके टुकड़े फर्श पर इधर उधर बिखरे पड़े थे, वो जा चुकी थी। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं !

अन्दर से उसकी सिसकियों की आवाज़ मेरे सीने को छलनी किये जा रही थी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि उसे मनाऊँ या उससे माफी मांगूं। मैं ठगा सा किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा स्वयं को कोस रहा था। उसके सानिध्य का जो अवसर ईश्वर ने मुझे दिया था उसे मैंने अपने उतावलेपन से खो दिया था। ग्लानि और पश्चाताप से मेरी आँखें डबडबा आई। कुछ देर यूँ ही बैठकर एक हारे हुए जुआरी की तरह मैं उठा और धीरे-धीरे बाहर निकल आया। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था।

रात में मैंने खाना नहीं खाया… ना ही मुझे नींद आई। रात भर करवटें बदलता हुआ उस मनहूस लम्हों को कोस रहा था। उसकी नज़रों में मैं गिर चुका हूँ यह सोचकर मेरा मन विचलित हो उठा।

दूसरे दिन सुबह देर से उठा… सर दर्द से फटा जा रहा था।

दीदी आई, मुझे छूकर देखा तो मुझे तेज बुखार था। दीदी ने मुझे आराम करने को कहा और चली गई।

दिन भर मैं अपने कमरे में ही पड़ा रहा। घर पर मेहमान आने लगे थे। दीदी उन्हीं में व्यस्त थी।

दो दिन से शबनम भी नहीं आ रही थी। मेरा मन आशंकाओं से भर उठा। तीसरे दिन शबनम दिखाई दी तो उसके सामने जाने का मुझमे साहस नहीं था। छिपकर मैंने देखा वो दीदी के साथ काम में हाथ बंटा रही थी। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। मैं कुछ निश्चिन्त हुआ और अपने कमरे में आकर चुपचाप लेट गया।

लगभग एक-डेढ़ घंटा बीता होगा कि मुझे दरवाजे पर कुछ आहट सुनाई दी।

उठकर दरवाजा खोला तो देखा शबनम खड़ी थी..
मेरी निगाहें शर्म से नीचे हो गई।
उसने कहा- कैसे हो? सुना कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है?

मैंने कातर दृष्टि से उसकी ओर देखा… मेरी आँखे डबडबा आई, बड़ी कठिनाई से अपने आँसुओं को बहने से रोका… और आँखें नीची कर ली।

तभी दीदी आ गई- अरे शबनम तू यहाँ ? मैं तुझे कहाँ कहाँ ढूंढ रही हूँ। चल नीचे तुझसे काम है…
फिर उसने मेरी और देखकर कहा- तू आज से शबनम के घर रहेगा। घर पर मेहमान भर गए हैं और इस कमरे को स्टोर बनाना है। तेरी तबीयत भी ठीक नहीं है। वहाँ तुझे कुछ आराम मिल जायेगा।
मैंने आश्चर्य से शबनम की ओर देखा तो दीदी ने कहा- उसे क्या देख रहा है? उसी ने तो कहा है…

इसके आगे मैं कुछ कह पाता, दोनों नीचे जा चुकी थी।

रात के दस बजे थे। दीदी ने मुझे बुलाकर शबनम के साथ उसके घर जाने को कहा। हम चल पड़े। रास्ते में हमारी कोई बातचीत नहीं हुई, न उसने मुझसे कुछ कहा और न मैंने।

हम चुपचाप चले जा रहे थे… अनजान इंसानों की तरह।

उसके मन पर क्या बीत रही थी यह मुझे नहीं मालूम पर मेरे मन में हलचल मची हुई थी। मैंने कठोरता से बलपूर्वक अपने मन से शबनम को दूर कर उससे निर्लिप्त रहने का ठान लिया।

इस बीच उसका घर आ गया, उसने दरवाजा खोला… ड्राइंग रूम में घुसते ही मेरी नज़र सबसे पहले उस जगह पर पड़ी जहाँ शीशे का ताजमहल रखा हुआ था। वह जगह खाली थी। इस बीच शबनम ने दीवान पर मेरे सोने की व्यवस्था कर अन्दर चली गई।

मुझे नींद नहीं आ रही थी, मेरा मन अब शबनम के प्रति बदल चुका था। मैंने तय कर लिया था कि शबनम को अब बुरी निगाह से नहीं देखूँगा और न उसके बारे में कुछ सोचूँगा। जो गलती मुझसे एक बार हो गई है, उसे अब दोहराना नहीं है।

इन्हीं विचारों में खोया हुआ मैं आँखें बंद कर चुपचाप लेटा था। लगभग बीस मिनट बीते होंगे दरवाजे पर किसी के आने की आहट सुनाई दी…
देखा तो शबनम खड़ी है!

कहानी का अगला भाग : शीशे का ताजमहल-2
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