लाजो का उद्धार-1
(Lajo Ka Uddhar-Part 1)
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मैं आभार प्रकट करता हूँ अपनी खूबसूरत साली का जिसने मुझे इस घटना को आपके सामने लाने की इजाजत दी।
औरत की इज्जत और उसकी संवेदनशीलता को देखते हुए मैंने इसे उसकी स्वीकृति पाने के बाद ही लिखा।
उसने न केवल इस ‘आपबीती’ को ध्यान से पढ़ा बल्कि उसके मनोभावों और अनुभवों को इतनी सूक्ष्मता से समझने के लिए मेरी प्रशंसा की और अपनी ओर से कुछ संशोधन करके इसे और अपने अनुभवों के नजदीक ला दिया।
यह बात और महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है कि मैंने उसके साथ बड़ी जबर्दस्ती की, हालाँकि वास्तविक सेक्स की क्रिया तक पहुँचते पहुँचते वह राजी बल्कि सहयोगी हो चुकी थी, जो उसकी अब तक दबी शारीरिक इच्छाओं के एकाएक निकल पड़ने का रास्ता मिलने के कारण स्वाभाविक था।
उस ‘उद्धार’ के बाद वह मुझसे निसंकोच हो गई और उसकी बेहद सुंदर, स्त्रियोचित, संवेदनशील, गरिमापूर्ण प्रकृति से मेरा साक्षात्कार हुआ।
मुझे खुशी है कि उसने अंतत उस ‘उद्धार’ के लिए मेरा आभार माना। मैंने टाइपिंग की सुविधा तथा उसकी इज्जत मर्यादा का खयाल करके इसमें केवल उसका नाम बदल दिया है।
सुलक्षणा काफी लम्बा नाम है और कुछ पुराने फैशन का भी जिसे आज की आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़की के साथ जोड़ना अनुकूल नहीं लगता। इसकी अपेक्षा ‘लाजो’ काफी छोटा, टाइपिंग में आसान और उसकी सलज्ज प्रकृति के अनुकूल लगा।
और मैं सबसे अधिक आभार प्रकट करता हूँ अपनी विलक्षण पत्नी का जिसके सहयोग बिना यह घटना घटी ही नहीं होती। वो तो इस ‘महाभारत’ की कृष्ण ही थी– सूत्रधार से लेकर कर्ता-धर्ता सब कुछ! मैं तो उसकी इस इस महान ‘लीला’ में अर्जुन की भाँति निमित्त मात्र था!
अथ कथारम्भ:
‘अगर भगवान ने बेहद खूबसूरत जवान साली दी हो तो ऐसा कौन सा होशोहवास वाला मर्द होगा जो उसे भोगना न चाहेगा?’ मेरी हट़टी-कट़टी पत्नी का यह बेलगाम जाटण डायलॉग उसकी कद-काठी के अनुरूप ही था। वह सिर्फ शरीर से नहीं मन से भी तगड़ी थी। और सच को बिल्कुल हथौड़ामार अंदाज में कहने की कायल थी।
मैं आश्चर्य करता था ऐसी तगड़ी हरियाणवी बीवी की ऐसी कोमल, छरहरी, बंगालन जैसी मुलायम बहन कैसे हो गई, रसगुल्ले-सी नरम। कस के पकड़ो तो डर लगे कि टूट न जाए। मन में ममता उमड़े, ऐसी खूबसूरती कि हिफाजत से कहीं छुपाकर रख लेने का दिल चाहे। छरहरी, लेकिन सही जगहों पर भरी हुई।
यकीन नहीं होता दोनों एक ही पेट से जन्मी हैं। मेरी बीवी के विपरीत उसके तौर-तरीके महीन थे। वह शालीन, शर्मीली, बात को अप्रत्यक्ष बनाकर कहने वाली, मीठा बोलने वाली।
बीवी के साथ सेक्स में जहाँ जोड़ के दो पहलवानों की भिड़ंत का मजा आता था, वहीं उस कोमल, लुचपुच, सखुए की नई टहनी-सी लचकीली साली के साथ सेक्स की कल्पना मुँह में पानी भर देती।
कैसी होगी उसकी चमड़ी की छुअन! कैसी होंगी उसकी मुलायम पसलियों का अपनी छाती पर एहसास! कैसे लगेंगे हथेलियों में उसके स्तन! कैसी महसूस होगी लिंग पर कसी उसकी योनि की मक्खनी लिपटन!
बदकिस्मती से उसको पति भी उसके जैसा ही मुलायम और सिंगल चेसिस वाला मिला था। ठठाकर हँसने की जगह औरतों की तरह मुँह छिपाकर हँसता। आवाज भी थोड़ी पतली–औरत और मर्द के बीच की सी।
आइआइटी इंजीनियर का लेबल देखकर शादी हो गई थी। था तो लम्बा लेकिन मुझे और मेरी बीवी दोनों को वह बीमार-सा लगता।
बीवी की तो नजर में ही उसके लिए उपेक्षा दिखती- ‘मरियल साला, मेरी बहन तो बर्बाद हो गई।’
मैं समझाता- तुम्हें ही तो लगता है वह बर्बाद हो गई। उसको देखो तो वह कितनी खुश है।’
‘क्या खुश रहेगी? हुँह!” वह भुनभुनाती।
मैं मनाता काश उस गुलाब की कली का एक बार मेरे से जोड़ हो जाए। उसे एक बार पता चले कि असल मर्द का स्वाद कैसा होता है। फिर उस लल्लू इंजीनियर को हाथ भी न लगाने देगी।
मुझे कभी-कभी लगता भी कि वह मुझे नजर बचाकर गौर से, एक अलग भाव से देखती है। लेकिन इसे वहम मानकर उड़ा देता!
हर मर्द को लगता है कोई भी सुंदर औरत उसे ही देख रही है। फिर मैं अपनी बीवी से बेहद संतुष्ट भी था। वह सुंदर थी और मेरे मनोनुकूल लम्बी, गोरी और दमदार।
उसकी हर चीज बड़े साइज की थी- शरीर के अंग से लेकर बातें तक! खुलकर देती! खुलकर कहती! कोई कम दमखम और आत्मविश्वास वाला पुरुष उसे सम्हाल भी नहीं पाता।
साली में अगर कमनीयता, कोमलता और संकोच का सौंदर्य था तो मेरी पत्नी में भव्यता, पुष्टि और आत्मविश्वास का। दोनों अपने अपने तरीके से सुंदर थीं।
रेशमा की अपनी बहन पर तरस बढ़ती जा रही थी। शायद साली भी अपने पति से खुश नहीं थी। उसके बारे में रेशमा बताती उसका पति अक्सर बाहर ही टूर पर भागता रहता है, लाजो से बचता सा है।
‘केवल सुख-सुविधाएँ जुटा देने से क्या होगा, औरत क्या केवल सुख सुविधाएँ ही चाहती है?’ रेशमा उसके बारे में कहते हुए कभी-कभी मुझे एक अलग नजर से देखती।
शुरू में लगता कि वह मुझे देखकर बहन की अपेक्षा अपनी किस्मत पर खुश हो रही है। मैं गर्व से फूलता।
पर धीरे-धीरे लग रहा था बात इतनी सी नहीं है। मगर आगे यह जिधर जाती थी उसकी कल्पना भी भयावह लगती थ। ऐसी दिलेर और निष्ठावान बीवी के रहते ऐसी बात सोची भी कैसे जा सकती थी।
मैं अपने साढू भाई की तरफ़दारी करता- नौकरी में जरूरत है तो टूर करना ही पड़ेगा। वो क्या मना कर देगा कि नहीं जाएँगे? काम काम है। तुम लोगों की तरह घर नहीं बैठ सकता।’
पर पत्नी़ नहीं मानती- वो असल में औरत से भागता है, मुझे तो लगता है वह बचने के लिए और ज्यादा टूर लगाने लगा है।’
मैं कहता- ऐसा क्यों सोचती हो, उस पर जिम्मेदारियाँ बढ़ रही होंगी। आइआइटी का इंजीनियर है।’
पर पत्नी की निगाहों में ‘मुझे मत समझाओ, सब समझती हूँ’ का भाव मेरी बातों को व्यर्थ कर देता।
मैं तटस्थ दिखने और लाजो के प्रति अपने आकर्षण की झलक न लगने देने के लिए उस लल्लू इंजीनियर का पक्ष लेता रहता।
पर रेशमा पर मेरी तटस्थता का कोई असर नहीं था। उसकी झक बढ़ती जा रही थी। मेरे लिए तो अनुकूल स्थिति थी। फिर भी मैं कभी कभी चिढ़ाने के लिए उसे छेड़ देता- क्या पता वो ‘लल्लू’ ठीक हो, लाजो में ही कुछ… मेरा मतलब कोई प्राब्लम वगैरह?’
रेशमा भड़क जाती- उसके बारे में ऐसी बात भी नहीं कहना! वो मेरी बहन है। उसका दुर्भाग्य है नहीं तो वो उसे असली रूप में देखकर कोई भी मर्द दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाए रह जाता।’
मैं पूछता- तुम्हें कैसे मालूम उसका ‘असली’ रूप? तुमने देखा है?’
वह और चिढ़ती- मेरी बहन है ना, तुम्हारी होती तो उसका दर्द समझ में आता।’
वह कहती- उसे खुशी पाने का पूरा हक है। किस्मत ने धोखा दिया तो क्या हुआ, किस्मत का रोना केवल कायर रोते हैं। दिल गुर्दे वाले तो खुशी हासिल करते हैं।’
‘जरूर!’ मैं कहता।
लाजो निस्संदेह सुंदर थी और उसे ‘खुशी’ देने में जीजा से अधिक किसकी रुचि हो सकती थी?
‘पर क्या उसमें इसे हासिल करने की हिम्मत है?’
रेशमा उदासी में साँस छोड़ती- यही तो मुश्किल है! बड़ी डरपोक है, कुछ नहीं करेगी, संकोच में ही मरती रहेगी।’
लेकिन वह केवल खीझते रहने तक सीमित नहीं थी। एक बार उसने उसकी बातें करते हुए अचानक मुझसे पूछ डाला- तुमको लाजो कैसी लगती है?’
मैं इतने दिनों से इस सवाल का इंतजार कर ही रहा था। मैं इस सवाल से बचना चाहता था।
‘क्यों क्या बात है?’
‘कुछ नहीं, पर बताओ ना।’
‘अच्छी! पर तुमसे अधिक नहीं, तुम उससे बहुत अच्छी हो।’
‘ओह मैं अपनी बात नहीं कर रही।’
मैंने दिल कड़ा करके कह दिया- बहुत अच्छी, बेहद सुंदर!
वह कुछ बोलने को उद्यत हुई पर चुप रह गई। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।
मैंने बात में हँसी घोलने की कोशिश की- पर क्या पता उसे मैं बेवकूफ लगता होऊँ। इतना वफादार मर्द जो हूँ।’
पर उस पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। अब मुझे लगा मुझे आगे बढ़कर लगाम थामनी चाहिए- मैं कुछ-कुछ समझ रहा हूँ तुम क्या चाहती हो। पर क्या यह सही होगा?’
बोलते ही लगा कि इसमे तो मेरी स्वीकृति दिख जा रही है, तुरंत सुधारने की कोशिश की- मेरा मतलब मैं तो ऐसा नहीं चाहता।’
मेरी पत्नी ने मुझे तरस खाने वाली निगाह से देखा, औरत से बच पाना बड़ा मुश्किल होता है।
‘सही समझने का शुक्रिया!’ मैं समझ नहीं पाया इसमें व्यंग्य है या तारीफ।
मैं सोच नहीं पाया कि क्या बोलूँ, मुँह से निकला- लाजो पतिव्रता है, वह कभी नहीं मानेगी।’
मैं खुद सोचता रह गया कि इसका क्या मतलब हुआ, क्या मैं सचमुच यही बोलना चाहता था?
रेशमा ठठाकर हँस पड़ी- पतिव्रता!’ और चुटकी ली- और तुम पत्नीव्रता वाह वाह…’
फिर गंभीर होकर बोली- मैंने देखा है, वह तुम्हें किस नजर से देखती है।’
‘उसने तुमसे ऐसा कुछ कहा?’
‘सब कुछ कहा नहीं जाता।’
‘तुम्हें भ्रम हो रहा होगा। उसका पति कैसा भी हो, वह ऐसा हरगिज नहीं चाह सकती।’
‘मैंने कब कहा वह चाहती है, वह तो मैं देखूँगी।’
मैंने उसका हाथ पकड़ा- जानेमन, मैं तुम्हीं में बहुत खुश हूँ, मुझे और कोई नहीं चाहिए।’
वह अजब हँसी हँसी। वह व्यंग्य थी कि सिर्फ हँसी मैं समझ नहीं पाया। मुझे डर लगा। लगा कि वह मेरे चेहरे के पार मेरे मन में लाजो के प्रति पलती कामनाओं को देख ले रही है।
मैंने छुपाने के लिए और मक्खन मारा- जानेमन, मैं तुम्हें पाकर बेहद खुशकिस्मत हूँ। मैं तुम्हें, सिर्फ तुम्हें ही चाहता हूँ।’ और मुलम्मा चढ़ाने के लिए मैंने चूमने को मुँह बढ़ाया, पर…
वह धीरे से हाथ छुड़ाकर उठ खड़ी हुई।
‘अगर भगवान ने बेहद खूबसूरत जवान साली दी हो तो ऐसा कौन सा होशोहवास वाला मर्द होगा जो उसे भोगना न चाहेगा?’
वह ठोस बोल्ड आवाज कमरे की शांति में पूरे शरीर, मन और आत्मा तक में गूंज गई।
कहानी शुरू हो रही है! अगले भाग की प्रतीक्षा तो कीजिए! धैर्य रखिए तनिक!
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