तीसरी कसम-7

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प्रेम गुरु की अनन्तिम रचना

“जिज्जू ! एक बात सच बोलूँ ?”

“क्या?”

“हूँ तमारी साथै आपना प्रेम नि अलग दुनिया वसावा चाहू छु। ज्या आपने एक बीजा नि बाहों माँ घेरी ने पूरी ज़िन्दगी वितावी दयिये। तमे मने आपनी बाहो माँ लाई तमारा प्रेम नि वर्षा करता मारा तन मन ने एटलू भरी दो कि हूँ मरी पण जाऊ तो पण मने दुःख न रहे”

(मैं तुम्हारे साथ अपने प्यार की अलग दुनिया बनाना चाहती हूँ। जहां हम एक दूसरे की बाहों में जकड़े सारी जिन्दगी बिता दें। तुम मुझे अपनी बाहों में लेकर अपने प्रेम की बारिश करते हुए मेरे तन और मन को इतना भर दो कि मैं मर भी जाऊं तो मुझे कोई गम ना हो)

“हाँ मेरी पलक मैंने तुम्हारे रूप में अपनी सिमरन को फिर से पा लिया है अब मैं कभी तुमसे दूर नहीं हो सकूँगा !”

“खाओ मेरी कसम ?”

“मेरी परी, मैं तुम्हारी कसम खाता हूँ अब तुम्हारे सिवा कोई और लड़की मेरी जिन्दगी में नहीं आएगी। मैंने कितने बरसों के बाद तुम्हें फिर से पाया है मेरी सिमरन !” कह कर मैंने उसे फिर से चूम लिया।

मैंने अपने जीवन में दो ही कसमें खाई थी। पहली उस समय जब मैं बचपन में अपने ननिहाल गया था उस समय ऊँट की सवारी करते समय मैं गिर पड़ा था तब मैंने कसम खाई थी कि अब कभी ऊँट की सवारी नहीं करूँगा। दूसरा वचन मैंने अपनी सिमरन को दिया था। मुझे आज भी याद है मैंने सिमरन की कसम खाई थी कि मैं उसे इस जन्म में ही नहीं अगले 100 जन्मों तक भी प्रेम करता रहूँगा। मैं असमंजस की स्थिति में था। पुरुष की प्रवृति उसे किसी भी स्त्री के साथ सम्बन्ध बना लेने को सदैव उकसाती रहती है पर मेरा मन इस समय कह रहा था कि कहीं मैं अपनी सिमरन के साथ धोखा तो नहीं कर रहा हूँ।

“प्रेम अपनी इस सिमरन को भी पूर्ण समर्पिता बना दो आज !”

“नहीं मेरी परी, यह नैतिक और सामाजिक रूप से सही नहीं होगा !”

“क्यों?”

“ओह.. मेरी परी तुम अभी बहुत मासूम और नासमझ हो ! मेरी और तुम्हारी उम्र में बहुत बड़ा अंतर है। तुम्हारा शरीर अभी कमसिन है मैं भूल से भी तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट या दुःख नहीं पहुँचाना चाहता !”

“ओह प्रेम ! क्या तुम नहीं जानते प्रेम अँधा होता है। यह उम्र की सीमा और दूसरे बंधन स्वीकार नहीं करता। इवा ब्राउन और अडोल्फ़ हिटलर, राहब (10) और जेम्स प्रथम, बित्रिश (12) और दांते, जूली (32) और मटूकनाथ, संध्या और शांताराम, करीना और सैफ उम्र में इतना अंतर होने के बाद भी प्रेम कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकती ?

मिस्र के बादशाह तो लड़की के रजस्वला होने से पहले ही उनका कौमार्य लूट लिया करते थे। इतिहास उठा कर देखो कितने ही उदाहरण मिल जायेंगे जिनमें किशोर होती लड़कियों को कामदेव को समर्पित कर दिया गया था। मैं जानती हूँ यह सब नैतिक और सामाजिक रूप से सही नहीं होगा पर सच बताना क्या यह छद्म नैतिकता नहीं होगी?”

“ओह…” अबोध सी लगने वाली यह यह लड़की तो आज बहुत बड़ी दार्शनिक बातें करने लगी है।

“प्रेम ! क्या सारी उम्र अपनी सिमरन की याद में रोते रहना चाहते हो ?”

सयाने ठीक कहते हैं यह सारी सृष्टि ही काम के अधीन है। संसार की हर सजीव और निर्जीव वस्तु में काम ही समाया है तो भला हम अलग कैसे हो सकते थे। पलक ने अपनी स्कर्ट उतार फैंकी और अब वो मात्र एक पतली से सफ़ेद कच्छी में थी। मैंने भी अपने कपड़े उतार फैंके।

मेरी आँखों के सामने मेरी सिमरन का प्रतिरूप अपनी बाहें फैलाए अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार बिस्तर पर बिछा पड़ा था। मेरी आँखें तो उसकी सफ़ेद कच्छी को देख कर फटी की फटी ही रह गई। गोरी और मखमली जाँघों के बीच सफ़ेद रंग की पतली सी कच्छी में किसी पाँव रोटी की तरह फूली हुई पिक्की का उभार बाहर से भी साफ़ दिख रहा था। कच्छी का आगे का भाग रतिरस से पूरा भीगा था।कच्छी उसकी फांकों की झिर्री में इस प्रकार धंसी थी जैसे ज़रा सा मौका मिलते ही वो मोटी मोटी फांकें बाहर निकल आएँगी।

मैंने उसे फिर से अपनी बाहों में भर लिया और उसके होंठों और गालों पर अपने चुम्बनों की झड़ी लगा दी। पलक भी मुझे जोर जोर से चूमती हुई सीत्कार करने लगी। अब मैं हौले होले उसके गले और छाती को चूमते हुए नीचे बढ़ने लगा। जैसे ही मैंने उसके पेडू पर चुम्बन लिया उसने मेरा सर अपने हाथों में पकड़ कर अपनी पिक्की की ओर दबा दिया। कच्छी में फसे मांसल गद्देदार उभार पर मैंने जैसे ही अपने होंठ रखे पलक तो जैसे उछल ही पड़ी।

ईईई…ईईईईईई…ईईइ………

अब मैंने कमर पर अटकी उस कच्छी को दोनों हाथों में पकड़ा और नीचे खिसकाना चालू किया। पलक ने अपने नितम्ब थोड़े से ऊपर उठा दिए। मैंने उसकी कच्छी को केले के छिलके की तरह उसकी जांघों से नीचे करते हुए निकाल फेंका।

उफ्फ्फ्फफफ्फ्फ्फ़………

अनछुई, अधखिली कलि जैसे खिलने को बेताब (आतुर) हो। हल्के रेशमी, घुंघराले, मुलायम बालों से ढका शहद का भरा दौना हो जैसे। दो ढाई इंच के चीरे के बीच गुलाब की पंखुड़ियों जैसी कलिकाएँ आपस में ऐसे चिपकी थी कि मुझे तो लगा जैसे ये पंखुड़ियाँ पी (मूतने) करते समय भी बड़ी मुश्किल से खुलती होंगी। दोनों फांकों के बीच की रेखा तो ऐसे लग रही थी जैसे दो ऊंची पहाड़ियों के बीच कोई पतली सी नदी बह रही हो।

मैं झट से उसकी जाँघों के बीच आ गया और उसकी जाँघों को दोनों हाथों से चौड़ा कर के उसकी पिक्की पर अपने होंठ लगा दिए। मैं उसके रेशमी मुलायम घुंघराले बालों के बीच नव बालिग़, कमसिन कोमल त्वचा और कोमल अंकुर को सूंघने लगा। पलक ने आँखें बंद करके जोर से सित्कार भरी। उसकी जांघें अपने आप कस गई और कमर थोड़ा सा ऊपर उठ गई। मेरे नथुनों में उसकी कुंवारी कमसिन पिक्की की खुशबू भर गई। मैंने पहले तो उस रस में डूबी फांकों को चूमा और फिर जीभ से चाटा। फिर अपनी जीभ को नुकीला कर के उसकी फांकों के बीच लगा कर एक लस्कारा लगाया और फिर उसे पूरा मुँह में भर कर जोर से चूसा।

पलक ने मेरा सिर अपने हाथों में कस कर अपनी जाँघों के बीच दबा लिया। वो तो जैसे छटपटाने ही लगी थी। पिक्की के दोनों होंठ रक्त संचार बढ़ने के कारण फूल से गए थे। मैं उन फांकों को कभी मुँह में भर कर चूसता कभी दांतों से दबा देता। कभी जीभ से उसके किसमिस के दाने की तरह फूले भगांकुर को सहला देता। दांतों के गड़ाव से उसे थोड़ा सा दर्द भी होता और आनंद की उमड़ती लहर से तो वो जैसे पछाड़ ही खाने लगी थी। उसके चीरे के ऊपर थिरकती मेरी जीभ जब उसकी फुनगी (मदनमणि) से टकराती तो पलक तो उछल ही पड़ती।

“ओह… जीजू हु मरी जायिश… आह … ओह.. छोड़ो मने….. या …..ईईईईईईईईई … मरी पी निकली जाशे… ईईईई,” (ओह … जीजू मैं मर जाऊँगी … आह … ओह… छोड़ो मुझे … या….. ईईईईईईईईई … मेरा पी निकल जाएगा…. ईईईईईईईईइ)

मैं जानता था कि अब कुछ पलों के बाद मेरे मुँह में मधु की बूँदें टपकने वाली हैं। मैं उसे कहना चाहता था ‘चिंता मत करो’ पर कैसे बोलता। मैं उसकी पिक्की से अपना मुँह हटा कर अपने आप को उस मधु से वंचित नहीं करना चाहता था। मैंने उसे चूसना चालू रखा। वो पहले तो छटपटाई, उसका शरीर हिचकोले खाते हुए कुछ अकड़ा और फिर मेरा मुँह एक मीठे गाढ़े चिपचिपे नमकीन और लिजलिजे रस से भर गया। मैं तो इस कुंवारी देह की प्रथम रसधार का एक कतरा भी नहीं छोड़ सकता था, मैंने उसकी अंतिम बूँद तक चूस ली।

पलक तो आह … उम्म्म …. करती बिलबिलाती ही रह गई। कुछ झटके से खाने के बाद वो कुछ शांत पड़ गई।

अब मैं अपने होंठों पर जीभ फिराता ऊपर की ओर आ गया। पलक ने झट से मेरे होंठों को अपने मुँह में भर लिया और जोर जोर से चूमने लगी। मैंने अब फिर से उसकी पिक्की को सहलाना चालू कर दिया तो उसने भी पहली बार मेरे लण्ड को अपने हाथों में पकड़ लिया। कोमल अँगुलियों का स्पर्श पाते ही वह तो झटके से खाने लगा। कुंवारी चूत की खुशबू पाते ही मेरे पप्पू ने नाग की तरह अपना फन उठा लिया।

“जीजू … ऊऊउ… आह …… ऊईईईई …”

मैं अचानक उठ खड़ा हुआ। पलक को बड़ी हैरानी हो रही थी। वो तो सोच रही थी कि अभी मैं अपने पप्पू को उसकी पिक्की में डाल दूंगा। पर मैं भला ऐसा कैसे कर सकता था?

“ओह… जीजू … अब क्या हुआ ?” पलक ने आश्चर्य से से मेरी ओर देखा।

आप भी नहीं समझे ना ? ओह … आप भी सोच रहे होंगे यह प्रेम भी निरा गाउदी है क्यों नहीं इसकी कुलबुलाती चूत में अपना लण्ड डाल रहा?

मैं दरअसल निरोध (कंडोम) लगा लेना चाहता था। मैं अपनी इस परी के साथ कोई जोखिम नहीं लेना चाहता था। मैं तो गलती से भी उसे किसी झंझट में नहीं डाल सकता था।

“एक मिनट रुको म… मैं… वो निरोध लगा लेता हूँ !”

“नहीं जीजू … ओह… छोड़ो निरोध के झंझट को … अब मुझे अपने प्रेमरस में डुबो दो …”

“मेरी परी मैं कोई जोखिम नहीं लेना चाहता !”

“केवू जोखिम?”

“मैं तुम्हें किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहता, कहीं कुछ गड़बड़ ना हो जाए?”

“ओह… कुछ नहीं होगा … तुमने मुझे बताया तो था आजकल पिल्स भी आती हैं?”

“पर वो …?” मैं फिर भी थोड़ा झिझक रहा था।

“प्रेम मैं तुम्हारे प्रेम की प्रथम वर्षा अपने अन्दर महसूस करना चाहती हूँ !” पलक ने अपनी बाहें मेरी ओर फैला दी। मैंने उसे एक बार बताया था कि प्रथम मिलन में कोई भी पुरुष अपना वीर्य स्त्री की कोख में ही डालना पसंद करता है। यह नैसर्गिक होता है। शायद उसे यही बात याद आ गई थी।

मैंने पास पड़ी मेज पर रखी क्रीम की डब्बी उठाई और पलक की जाँघों के बीच आ गया। मैंने अपनी अंगुली पर ढेर सारी क्रीम लगा कर पलक की पिक्की की फांकों और छेद पर लगा दी। उसकी पिक्की में तो फिर से कामरस की बाढ़ आ गई थी। मैंने अपनी एक अंगुली उसके कुंवारे छेद में भी डाल कर हौले होले अन्दर बाहर की। छेद बहुत संकरा सा लग रहा था और अन्दर से पूरा गीला था। पलक का सारा शरीर एक अनोखे रोमांच के कारण झनझना रहा था। मैंने उसकी फांकों को भी सहलाया और उन पर भी क्रीम रगड़ने लगा। उसके चीरे के दोनों ओर की फांकें तो कटार की तरह इतनी पैनी और तीखी थी कि मुझे लगा कहीं मेरी अंगुली ही ना कट जाए। उत्तेजना के मरे उसकी पिक्की पर उगे बाल भी खड़े हो गए। पिक्की पर हाथ फिराने और कलिकाओं को मसलने से उसे गुदगुदी और रोमांच सा हो रहा था।

रेशम की तरह कोमल और मक्खन की तरह चिकना अहसास मेरी अँगुलियों पर महसूस हो रहा था। जैसे ही मेरी अंगुली का पोर उस रतिद्वार के अन्दर जाता उसकी पिक्की संकोचन करती और उसकी कुंवारी पिक्की का कसाव मेरी अंगुली पर महसूस होता। पलक जोर जोर से सीत्कार करने लगी थी और अपने पैरों को पटकने लगी थी। उसके होंठ थरथरा रहे थे, वो कुछ बोलना चाहती थी पर ऐसी स्थिति में जुबान साथ नहीं देती, हाँ, शरीर के दूसरे सारे अंग जरुर थिरकने लग जाते हैं।

उसकी सिसकी पूरे कमरे में गूंजने लगी थी और पिक्की तो इतनी लिसलिसी हो गई थी कि अब तो मुझे विश्वास हो चला था कि मेरे पप्पू को अन्दर जाने में जरा भी दिक्कत नहीं होगी।

“ओह… जीजू … आह…. कुछ करो … मुझे पता नहीं कुछ हो रहा है … आह्ह्ह्हहह्ह्ह्ह !”

मेरे प्यारे पाठको और पाठिकाओ ! अब प्रेम मिलन का सही वक़्त आ गया था।

कहानी जारी रहेगी !

प्रेम गुरु नहीं बस प्रेम

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