जिस्म की जरूरत -24
(Jism Ki Jarurat- Part 24)
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क्या हाल है मेरे दोस्तो… मैं जानता हूँ कि यूँ अचानक से कहानी को बीच में छोड़कर ग़ायब हो जाने से मेरे कई पाठक मुझसे ख़फ़ा हैं. यक़ीन मानिए कुछ हालात ऐसे बन गए थे कि लिखने का मन नहीं कर रहा था! पर फिर किसी चाहने वाले से किए हुए वादे की याद आ गई!
अमूमन मैं वादे तोड़ता नहीं… अपने वादे को पूरा करते हुए इस कहानी को आगे बढ़ा रहा हूँ!
उम्मीद है कि रेणुका के साथ बीती सुबह ने आप सबका भरपूर मनोरंजन किया होगा. आइये अब आगे बढ़ते हैं…
‘समीर बाबू… ओ समीर बाबू!’ दरवाज़े के बाहर से आती हुई आवाज़ लगातार मुझे बुला रही थी और मैं रेणुका के साथ बिताये हुए लम्हों को याद कर मुस्कुराते हुए दरवाज़े की तरफ चल पड़ा.
दरवाज़े को खोलते ही सामने मुझे मेरे ऑफिस का चपरासी ‘शम्भू’ नज़र आया.
यूँ अचानक शम्भू को देखकर मैं चौंक गया- अरे शम्भू जी आप… सब ठीक तो है ऑफिस में? कैसे आना हुआ?’
एक साथ कई सवाल कर दिए मैंने!
‘सब ठीक है समीर बाबू, आज आप ऑफिस नहीं आये तो बड़े साहब ने आपके लिए यह फाइल भिजवाई है… शायद कोई जरूरी फाइल है, आप इसे देख लीजिये, मैं शाम को आकर ले जाऊँगा.’ शम्भू ने इतना कहकर एक फाइल मेरी तरफ बढ़ा दी.
फाइल को देखते ही मुझे याद आया कि यह बहुत ही जरूरी फाइल थी जिसे मुझे दिल्ली भेजना था. मैंने फाइल को पलट कर देखा और शम्भू को धन्यवाद दिया.
‘आइये शम्भू जी, अन्दर आइये, चाय पीते हैं फिर आप चले जाना!’ मैंने औपचारिकता निभाते हुए शम्भू जी को घर के अन्दर आने को कहा.
‘नहीं नहीं समीर बाबू, बड़े साहब को कुछ जरूरी काम है इसलिए मुझे तुरंत जाना होगा. फिर कभी फुर्सत में आ कर चाय पियूँगा. आप आराम कीजिये, मैं चलता हूँ.’ इतना कहकर शम्भू जी वापस चल दिए.
मैंने फाइल को उलट पलट कर देखते हुए घर के अन्दर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए और दरवाज़े को अपने पैर से धकेल कर बंद कर दिया.
अपने कमरे में आकर मैंने सबसे पहले उस फाइल को निपटाया और फिर एक हल्की सी टी-शर्ट पहन कर बाहर निकला.
बाहर निकलते ही मुझे सामने से अरविन्द भैया की गाड़ी आती दिखाई पड़ी. मैं पल भर को चौंक गया… ‘यूँ इतनी जल्दी अरविन्द भैया वापस कैसे आ गए?’ अपने आप से सवाल करते हुए मैं जहाँ था, वहीं रुक गया और उनकी गाड़ी को पास आते तक देखता रहा.
गाड़ी उनके घर के दरवाज़े पर आकर रुकी और अरविन्द भैया गाड़ी से नीचे उतरे. गाड़ी से उतरते ही उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और मैंने धीरे से अपना सर झुका कर उन्हें नमस्ते की, उन्होंने भी मुस्कुराते हुए मेरे नमस्ते का जवाब नमस्ते से दिया.
‘कैसे हैं समीर जी… तबीयत तो ठीक है ना… आज ऑफिस नहीं गए?’ अरविन्द भैया ने अपने दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए मुझसे पूछा और फिर अपने घर की घंटी बजा दी.
‘जी नहीं भैया जी… सब ठीक है, बस ऐसे ही आज ऑफिस जाने का मन नहीं हुआ.’ मैंने भी मुस्कुराते हुए उन्हें जवाब दिया.
अब मैं उन्हें क्या बताता कि उनकी हसीन बीवी ने अपने हुस्न के जाल में मुझे फंसा कर यूँ मदहोश कर दिया कि कहीं जाने का मौका ही नहीं मिला… मन में यह ख्याल आते ही मैं मन ही मन मुस्कुराने लगा और एक बार फिर रेणुका का नंगा रेशमी बदन मेरी आँखों के सामने आ गया.
‘आइये चाय-वाय पीते हैं.’ अरविन्द भैया ने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया.
वैसे मैं उन्हीं के घर जाने के लिए निकला था… लेकिन यह सोच कर कि आज रेणुका घर में अकेली होगी और मैं जाकर उससे अपने मन के अन्दर चल रहे अंतर्द्वंद के बारे में बात करूँगा लेकिन शायद ऊपर वाले ने मुझे कुछ देर और इस अंतर्द्वंद को झेलने के लिए सोच रखा था, तभी अरविन्द भैया वापस आ गए थे.
इन सब बातों के अलावा मेरे मन में एक प्रश्न और उठा कि वंदना भी तो उनके साथ ही गई थी फिर वो कहाँ रह गई… उसे भी तो अरविन्द भैया के साथ ही वापस आना चाहिए था. मन में यह उत्सुकता जागी और मैं यही पता लगाने के लिए व्याकुल हो उठा.
अरविन्द भैया मुस्कुराते हुए अपने घर के अन्दर दाखिल हुए लेकिन मैं यूँ ही स्तब्ध सा अपने दरवाज़े पर ही खड़ा रह गया. मन में कई सवाल उमड़ रहे थे और मुझसे यह कह रहे थे कि जा उनके घर जा और पता कर कि माजरा क्या है!!
पर मैं अब भी अपने ख्यालों में खोया वहीं खड़ा था.
जाने कितना वक़्त हो गया था मुझे खड़े-खड़े और तभी रेणुका के घर के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया. सामने अरविन्द भैया और रेणुका सजे संवरे घर से बाहर आते नज़र आये. रेणुका तो मानो यूँ सजी-संवरी थी जैसे किसी ख़ास मौके की तैयारी हो!
मेरी उलझन और भी बढ़ गई थी. एक तो मैं यह सोच सोच कर परेशान हो रहा था कि अरविन्द भैया क्यूँ लौट आये और वो भी वंदना के बिना… और दूसरा इतने सज-संवर कर दोनों कहाँ के लिए निकल रहे हैं.
अरविन्द भैया ने कार का गेट खोला और उसे वापस जाने के लिए रिवर्स करने लगे और मेरी जान मेरी रेणुका मेरी तरफ आती हुई नज़र आई.
पता नहीं क्यूँ लेकिन मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी, यह सोच कर कि वो मेरी तरफ क्यूँ आ रही है.
अपनी चिर-परिचित कातिल मुस्कान के साथ रेणुका मेरी तरफ बढ़ती हुई बिल्कुल मेरे पास आ गई और अपने बदन से आ रही एक मादक खुशबू से मुझे मदहोश कर गई.
मैंने एक गहरी सांस लेकर उसकी खुशबू को अपने अन्दर समा लिया और मेरी आँखें खुद ब खुद बंद सी हो गईं.
‘कहाँ खोये हुए हैं ज़नाब?’ रेणुका की मधुर आवाज़ ने मुझे मानो नींद से झकझोर दिया हो.
अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ रेणुका ने अपनी निगाहें मुझपर टिकाये हुए अपने पर्स में हाथ डाला और एक लिफ़ाफा निकलकर मेरी तरफ बढ़ा दिया. लिफ़ाफ़े के साथ साथ घर की चाभियाँ भी थीं.
मैंने हैरत भरी निगाहों से मौन प्रश्न किया कि आखिर वो क्या था…
‘हम लोग बाहर जा रहे हैं, शायद आने में देर हो जाए इसलिए घर की चाभियाँ आपको दिए जा रही हूँ, वंदना कॉलेज से आये तो उसे दे दीजियेगा.’ एक सांस में ही रेणुका ने सब कुछ कह दिया और मैं अवाक् सा बस उसे देखता ही रहा.
अपनी बात कहकर रेणुका बिना मेरे जवाब या किसी प्रतिक्रिया के वापस मुड़ गई और तेज़ क़दमों से अपने कुल्हे मटकाती हुई अरविन्द भैया कि तरफ बढ़ गई जो अपनी गाड़ी में उसका इंतज़ार कर रहे थे.
मैंने वो लिफ़ाफ़ा अपनी जेब में डाला और रेणुका की मटकती हुई कमर और कूल्हे को फिर से ललचाई हुई आँखों से तब तक देखता रहा जब तक वो कार का गेट खोलकर अन्दर न बैठ गई. अरविन्द भैया ने गाड़ी स्टार्ट की और फिर दोनों मेरी तरफ हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए और धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गए.
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मैं थोड़ी देर तक वहीं खड़ा होकर उन्हें जाते हुए देखता रहा और फिर अचानक से उस लिफ़ाफ़े का ख़याल आते ही लगभग दौड़ता हुआ अपने घर की तरफ भागा. इतनी तेज़ी आ गई थी मुझमें कि बस पूछो मत… मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो मेरे प्यार का पहला ख़त हो!
मैंने जल्दी से अपने घर का दरवाज़ा खोला और भाग कर अपने कमरे में जाकर बिस्तर पे लेट गया और फिर उस लिफ़ाफ़े को खोल कर ख़त पढ़ना शुरू किया…
प्यारे समीर,
कहाँ से शुरू करूँ, समझ में नहीं आ रहा है… लेकिन जो कहना चाहती हूँ वो कहना ही पड़ेगा. अरविन्द जी से शादी के बाद मेरी दुनिया बहुत खुशनुमा थी. हम दोनों एक दूसरे को पाकर बहुत खुश थे और फिर वंदना के आने के बाद हमारी खुशियाँ दुगनी हो गई थीं. हमारी छोटी सी दुनिया में हम तीनों को किसी बात का कोई ग़म नहीं था. वंदना के जन्म के दो साल के बाद मैं फिर से माँ बनने वाली थी और इस बात से अरविन्द जी बहुत खुश हुए थे. पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था. चौथे महीने में सीढ़ियों से फिसलकर गिर जाने की वजह से हमारी दूसरी संतान इस दुनिया में आने से पहले ही…
इस घटना ने मुझे जिन्दा लाश बना दिया था, मेरी हंसती खेलती दुनिया वीरान सी लगने लगी थी. अरविन्द जी ने बहुत कोशिश की लेकिन मैं इस सदमे से उभर नहीं पाई. फिर आखिरकार वंदना की परवरिश की खातिर मैंने अपने आप को संभाला और अपनी पुरानी दुनिया में लौटने का प्रयास करने लगी.
इस दरमियान मेरी और अरविन्द जी के बीच मैंने ही एक अजीब सी दूरी बना ली थी. एक वक़्त था जब हम दोनों कभी भी एक दूसरे की बाहों में समा जाया करते थे और दुनिया से बेखबर होकर प्रेम के सागर में गोते लगाया करते थे. लेकिन अब यूँ हो गया था मानो उस प्रेम से मेरा कोई सरोकार ही न हो…
मैं जी तो रही थी, सबके साथ हंसती बोलती भी थी लेकिन मेरा मन अब भी कुंठित ही था.
देखते देखते इतने साल गुजर गए और मेरा जीवन यूँ ही नीरस बना रहा. मैंने अपने आपको अपने अन्दर ही कहीं बाँध रखा था. फिर एक दिन आप आये और पता नहीं क्या हुआ, मेरी आँखें न चाहते हुए भी आपकी तरफ उठने लगीं और मैं धीरे-धीरे आप में अपनी ख़ुशी तलाश करने लगी. धीरे-धीरे मैं आपके करीब आने लगी और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब आप मेरे अन्दर समां गए… आपके साथ बिताये हुए लम्हों ने मेरे अन्दर की सोई हुई रेणुका को फिर से जगा दिया.
मेरे मन में भी अरमान जागने लगे और एक बार फिर से जीने की चाहत होने लगी.
मैं खुश रहने लगी और ये बात अरविन्द जी ने नोटिस कर ली… मेरी मुस्कराहट जो अरविन्द जी की जान हुआ करती थी, फिर से उन्हें रोमांचित करने लगी. आपके साथ बीते हर लम्हे ने मुझे एक नया जीवन दिया है और मेरी शादीशुदा ज़िन्दगी को एक बार फिर से खुशियों से भर दिया है. आपके संसर्ग ने मुझे वो सब याद दिला दिया जो मैं कब का भूल चुकी थी… मुझे पता है आप ये सोच रहे होंगे कि आपने ऐसा क्या कर दिया… लेकिन सच मानिए तो यह बस आपके होने की ही वजह से हुआ है.
पिछले कुछ दिनों से अरविन्द जी और मैंने फिर से वो पल बिताये जो हमारी ज़िन्दगी से गायब हो चुके थे. अरविन्द जी को इतना खुश मैंने कभी नहीं देखा था… तब भी नहीं जब हमारे बीच सब कुछ ठीक था. आज सुबह मैं आपके पास ये सब कुछ कहने आई थी लेकिन आपको अपने पास पाकर मैं खुद को रोक न सकी और प्रेम के सागर में फिर से एक डुबकी लगा ली. उस खेल के बाद आप गहरी नींद में सो गए थे इसलिए मैंने आपको परेशान नहीं किया और यह सोचकर वापस अपने घर चली आई कि थोड़ी देर के बाद जब आप उठेंगे तब हम मिलकर बातें करेंगे और सारा दिन एक साथ रहेंगे.
लेकिन घर पहुचते ही अरविन्द जी का सन्देश आया और उन्होंने मुझसे घूमने जाने के लिए पूछा. उनका दिल नहीं तोड़ सकती मैं… पहले ही बहुत दुःख दे चुकी हूँ उन्हें… आप भी सोये हुए थे इसलिए मैंने अपने ये जज़्बात ख़त के ज़रिये आपको बतलाने का फैसला किया.
आपका शुक्रिया करना चाहती थी लेकिन कोई तरीका नज़र नहीं आ रहा था… अब आप खुद ही बताइए कि आपका शुक्रिया कैसे करूँ?
एक और बात… अब शायद हमें एक दूसरे से थोड़ी दूरियां बना लेनी चाहिए वर्ना कहीं हम एक दूसरे के मोह में ऐसे न फंस जाएँ कि बाकी सब रिश्तों को ताक पर रखना पड़े. अरविन्द जी के साथ जो पल मैंने खोये हैं अब उन पलों को दुबारा जीकर उन्हें पूरा करने की चाहत है… हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजियेगा!
उम्मीद है आप मेरी भावनाओं को समझेंगे और मुझे माफ़ करने की कोशिश करेंगे. आप प्रेम का दरिया हैं और इस दरिया को कभी ठहरने मत देना… जाने कितने बंजर ज़मीनों की हरियाली लौट आएगी इस दरिया से मिलकर!
आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा और खासकर इस बात का कि आपका शुक्रिया अदा करने के लिए क्या करना होगा!
रेणुका
यह क्या, मेरी आँखों में आंसू… अमूमन मेरी आँखें बहुत कम ही गीली होती हैं. अपने दर्द को अपने सीने में दबाने की कला में माहिर हूँ मैं! लेकिन आज पता नहीं क्यूँ रेणुका के ख़त ने मुझे रुला ही दिया…
कितना स्वार्थी हो गया था मैं… आखिर ये बात मैं खुद क्यूँ नहीं समझ सका… जबकि कई बार रेणुका ने इशारों ही इशारों में मुझे समझाने की कोशिश भी की थी, लेकिन मैं वासना की आग में अँधा होकर रेणुका के मोह में मरा जा रहा था…
आखिरकार इस ख़त ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.
मुझे मेरे मन में उठ रहे सभी सवालों का जवाब शायद मिल चुका था… मेरी आँखों के सामने रेणुका का वो मासूम सा चेहरा बार-बार आ रहा था जिसकी चमकती आँखें मुझे मेरी तरफ अपनी कृतज्ञता दिखा रही थीं.
अब आया था मेरी समझ में कि रेणुका इतनी खुश क्यूँ लग रही थी पिछले कुछ दिनों से…
मैंने बिस्तर के पास में रखे पानी की बोतल उठा ली और एक ही घूँट में पूरा खाली कर दिया. फिर उस ख़त को उठ कर अपनी आलमारी में कुछ इस तरह से छुपा कर रख दिया मानो वो कोई अनमोल खज़ाना हो.
बिस्तर पर वापस लेट कर मैं जाने किन ख्यालों में खो गया… लेकिन मेरे हर ख्याल में बस रेणुका ही थी.
इतना आसान नहीं था ये सब कुछ सहज ही स्वीकार कर लेना… लेकिन जो सच था वो सच था.
जाने कितनी ही बार मैंने कितनी ही औरतों के साथ ये खेला था लेकिन इस तरह से किसी के लिए इतना भावुक होना मेरे खुद के लिए एक उलझन भरी बात थी.
ऐसा नहीं है कि रेणुका के मामले में मुझे सच्चाई का एहसास नहीं था, लेकिन पता नहीं क्यूँ मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं था.
लेकिन अब सब कुछ साफ़ हो गया था… मुझे कोई हक नहीं था कि मैं स्वार्थ के लिए रेणुका की ज़िन्दगी में आई इस ख़ुशी को ग़म में तब्दील कर दूँ. आज नहीं तो कल, मुझे रेणुका से अलग होना ही था… हम दोनों चाह कर भी एक नहीं हो पाते!
बेहतर था कि मैं रेणुका की ख़ुशी में खुश हो जाऊं और जितना भी प्रेम और अपनापन रेणुका से मिला, उसे सुनहरी यादों की तरह अपने दिल में संजो कर रख लूँ! फिर लौट चलूँ मैं उसी दुनिया में जो मेरी वास्तविक दुनिया थी… यानि वही समीर बन जाऊं जो हमेशा हंसता खिलखिलाता और दूसरों में खुशियाँ बांटता फिरे!!
यूँ ही इन्हीं ख्यालों में डूबा हुआ मैं पता नहीं कितनी देर तक बिस्तर पर लेटा रहा… कि तभी एक जानी पहचानी सी खुशबू ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा.
कहानी जारी रहेगी.
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