कुछ कामिनियाँ ऐसी होती हैं जो चूत लण्ड जैसे शब्द कभी मुंह से नहीं ले सकतीं, कुछ अत्यंत शर्मीली लज्जालु होती हैं वे चुपचाप लेट कर चुदवाना पसन्द करतीं हैं, पूरी नंगी भी नहीं होतीं और अपना कोई सहयोग भी नही देतीं…
जब कोई लड़की अपनी चूत अपने हाथों से खोल कर इस तरह से लेटकर चोदने का न्यौता देती है तब यह उसके समर्पण की पराकाष्ठा होती है, अपनी लाज शर्म त्याग कर ही वो ऐसा कर पाती है…
वत्सला ने डरते डरते अपनी जीभ मेरे लण्ड से छुआ दी, फिर दुबारा थोड़ा और शहद चाट लिया। मैंने भी लण्ड को आगे की तरफ कर दिया और वत्सला रुक रुक कर लण्ड पर अपनी जीभ लगा लगा कर चाटने लगी।
कुछ देर बाद उसने मुंह हटा लिया और उसकी लार से चुपड़ा हुआ मेरा लण्ड लहराने लगा; उसके मुखरस का एक गाढ़ा सा तार अभी भी मेरे लण्ड और उसके होठों के बीच झूल रहा था।
‘आ जाओ बड़े पापा… मैं नंगी हो रही हूँ… और अपनी चूत के पट अपने हाथों से खोल के लेटती हूँ आपके स्वागत के लिए…हा हा हा!’ आरती हँसते हुए बोली और फोन कट गया।
सुबह आरती मुझे दूसरी चाय देने आई तो मैंने उसे पास बिठाया और उसके जवाँ बदन का मज़ा लेने लगा। तब हम दोनों में वत्सला की चुदाई की बातें हुईं, पढ़ें इस कहानी में !
पिछली कहानी में आपने पढ़ा कि आरती ने मुझे मिलने बुलाया, हमें चुदाई का भरपूर मौक़ा मिला. फिर आरती की मुंहबोली ननद आने वाली थी तो उसे लिवाने मुझे शहर जाना था. वो मुझे मिली!
मैं अपनी ननद से सचमुच की चुदाई में आने वाले आनन्द का वर्णन करती तो उसकी आँखें नशीली हो जातीं और उसकी चूत बहुत गीली हो जाती और फिर वो मुझसे अपनी चूत में ऊँगली करवाती।
हम दोनों के नंगे बदन गुत्थम-गुत्था होकर लिपटे थे.. सहसा वो जगी और उसके बदन में हलचल हुई. उसने धीरे से मेरी हथेली.. जो उसके बायें वाले दूध को दबोचे थी.. हटा दी.
मैं आरती के कमरे में जाकर पलंग पर पैर नीचे लटका कर बैठ गया, आरती भी कमरे में आ गई और पलंग के पास आकर खड़ी हो गई।
मैंने उसकी कमर में हाथ डाल उसके नितम्बों को सहलाता हुआ उसे अपनी गोद में बैठा लिया। वो मेरी तरफ मुँह करके बैठी थी.. उसकी मांसल जांघें मेरी जाँघों पर चढ़ी हुई थीं।
आठ बजे मैं आरती के घर पहुँच गया। उसने गुलाबी रंग की बिना बाँहों वाली सिल्क की नाइटी पहन रखी थी जो सामने से खुलती थी। गीले से बालों का जूड़ा बांध रखा था.. लगता था कि अभी नहाई थी.. नाइटी पारदर्शी तो नहीं थी लेकिन उसमें से उसके मम्मों के साथ साथ घुंडियों का उभार साफ़ दिख रहा था.. लगता था जैसे उसने नीचे कुछ नहीं पहन रखा था।
आरती के शीलभंग की स्मृति मानसपटल पर धारण किये मैं घर पहुँचा और यथाशीघ्र आरती के घर पहुँच गया. उससे मिल कर उसे खुश देख कर जो आत्मसन्तुष्टि मुझे मिली, बता नहीं सकता!
जेठ की उस तपती दुपहरी में चारों ओर सन्नाटा पसरा था.. दूर-दूर तक कोई नहीं था। मैंने जी कड़ा करके अपने लण्ड को जरा सा पीछे खींचा और दांत भींच कर.. पूरी ताकत और बेरहमी से आरती की कमसिन कुंवारी चूत में धकेल दिया।
जल्दी ही मैंने सलवार उसके बदन से उतार डाली.. उसकी हल्के गुलाबी रंग की कच्छी के ऊपर से उसकी चूत का उभरा हुआ त्रिभुज कुछ पल के लिए मुझे दिखा.. फिर उसने फ़ौरन अपने बदन को समेट उसे छुपा लिया।
मेरी बात सुन कर आरती भय से काम्पने लगी। उसकी चूत और चूचियों को मसलते हुए मैंने कहा- तू मेरी बात माने तो तेरे पापा को कुछ नहीं बताऊँगा।वो मेरी बात मान गई और अगले दिन बगीचे में आ गई !
अपना खेल ख़त्म करके आरती व अन्य लड़कियाँ कपड़े पहन कर लौट चली. रात को आरती की चूत याद करके मैंने मुट्ठ मारी और अगले दिन आरती के घर गया. उससे पूछ्ताछ की. आरती घबरा गई !
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