हम वैसे ही लिपटे हुए थे, वंदु की चूचियाँ मेरे सीने में दबी हुई थी, मेरा लंड सिकुड़ कर भोली सूरत बनाकर चूत के बाहर होंठों से सटा था मानो उसकी पप्पी ले रहा हो.
उसने खुद को कपड़ों से आज़ाद किया फिर यह छोटी सी पेंटी क्यूँ रहने दी? मन में कई विचार कौंधे और फिर समझ आया कि नारी सुलभ लज़्ज़ा का प्रदर्शन तो स्वाभाविक था.
वो और कोई नहीं वंदना ही थी. अभी थोड़ी देर पहले मैं उसकी माँ के मोह जाल में फंसा हुआ अपने आप को समझा रहा था और अब उसकी बेटी को सामने देख कर सब कुछ भूल गया…
अचानक से रेणुका ने बिजली की फुर्ती से अपना गाउन लगभग खींचते हुए निकाल फेंका और शेरनी की तरह कूद कर मेरे ऊपर झपट पड़ी… अब इस बार कुचले जाने की बारी मेरी थी।
वन्दना की मम्मी रेणुका को गोद में उठाये हुए मैं धीरे-धीरे बिस्तर की तरफ बढ़ा और हौले से उसे बिस्तर पर लिटा दिया… उनकी चिकनी जांघों को चूमते चाटते जैसे ही चूत पर जीभ लगी…
दिल्ली से मेरा यहाँ आना… रेणुका जी के साथ मिलना और फिर उनके साथ प्रेम की ऊँचाईयों को पाना… फिर वंदना का मेरी ज़िन्दगी में यूँ दाखिल होना और हमारे बीच प्रेम का परवान चढ़ना… सारी घटनाएँ बरबस मेरे होठों पे मुस्कान ले आती थीं।
मैं उसके कान के पास अपना मुँह लेजा कर धीरे से बोला- थोड़ा सा सब्र रखना ‘वंदु’ यकीन करो मैं तुम्हें तकलीफ नहीं होने दूँगा, बस अपने बदन को बिल्कुल ढीला रखना!
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